Thursday 8 September 2011

लघुकथाएं

                                                                      "आज तक"          



           पढाते पढाते अध्यापिका को लगा, उसके अंग - प्रत्यंग पर कुछ रेंग रहा है. उसने रुमाल से अपने चेहरे, होंठ, गर्दन को पोंछा किन्तु रेंगने का अहसास बना रहा. मन का वहम समझकर वह पुनः पढाने की कोशिश करने लगी, परन्तु पढा न सकी.
            पढाने का क्रम बाधित हो चुका था. उसकी दृष्टि छात्रों पर पड़ी. उसने पाया कि उनमें से कुछ नज़रों में उसकी देह के अंग - प्रत्यंग दिख रहे हैं. अब वह समझ सकी कि क्या रेंग रहा था. साड़ी के पल्लू से बची खुची देह  को उसने और ढँक लिया किन्तु देह को ढंके रखने के बावजूद वह रेंगना आज तक जारी है.


                                                                              "वंशज"



           चिड़िया ने कबूतरी से एक पड़ोसन के नाते कहा - बहन! घोंसला सुरक्षित, मजबूत और आरामदेह बनाया करो. यूँही तिनको का झाड इकट्ठे करने का क्या मतलब?  दूसरे जगह नहीं मिलती तो नीचे ही घोंसला बना लेते हो ? देखभाल और परवरिश अच्छी होनी चाहिए.
            कबूतरी ने जवाब दिया - मेरा पति इस आडम्बर से दूर है. संसार मिथ्या है, रिश्ते मिथ्या है. जो बन पड़े कर्म करो और शांति से जीवन जीओ. वह तो सदैव अपने ज्ञान और ध्यान में डूबा रहता है.
           चिड़िया धैर्य रखते हुए बोली - यह सब तो ठीक है पर बच्चों के प्रति भी हमारा कुछ दायित्व बनता है. उनके भविष्य से खिलवाड तो नहीं किया जा सकता ना ?
           कबूतरी को जरा सी चिड़िया की दी हुई सीख अच्छी नहीं लगी. नाक फुलाकर अहंकार से बोली - तुम साधारण लोग ज्ञान व्यान क्या जानो ? संसार में फंसी हो मोह में जकड़ी हो. तुमने अपने बच्चों को ऐसा क्या दे दिया ?
           चिड़िया को क्रोध तो बहुत आया किन्तु उसके झूठे अहम और मूर्खता को जानकार चुप रह गई. फिर इतराते हुए गर्दन फुलाए उसमें सिर धंसाए तथाकथित ध्यान मुद्रा में बैठे कबूतर के पास चली गई. उसे देखते ही कबूतर उसके चक्कर काटने लगा. उसका ज्ञान और ध्यान तिरोहित हो गया था.
            चिड़िया मन में सोच रही थी - न समय, न संयम बातें बड़ी बड़ी. हर बार बच्चे भक्षक जानवरों का ग्रास बनते हैं. बच जाते हैं तब वंश परंपरा में मिली मूर्खता और झूठे दंभ को निभाते हैं.