Wednesday 28 December 2011

कुंए में .....१

१.

ठोक दी गई हैं कीलें
समय में, कि
कील दिया है हमें
इस समय ने

अब यहाँ
सरसों नहीं फूलती
धरती को
छोड़ दिया गया है
यूँ ही
उजड़ने के लिए

हवा भी
अपनी महक भूलकर
भर गई है
विदेशी पफ्यूम कि गंध से

रात दिन
सीमेंट के बंद  डिब्बों में
रेंगते हुए
क्या जान पा रहे हैं

किस साजिश के तहत
डाल दिए गए हैं
किन्हीं कुओं में


२.

तुम्हें
सांप के विष से सरोकार था
या चाहिए थी
केंचुल उसकी
किसी सपेरे के कहने पर

हालांकि तोड़ चुके हो
जहर बुझे दांतों को
बहुत पहले ही

तो क्या हुआ ?

सांप है वह अब भी
बस दांत ही तो नहीं है

काँटों से गुजरकर
उतार दी केंचुल अपनी

तुम समझे थे कि नहीं ?

बचा हुआ जहर और
जिन्दा है जो अब भी
वे तो मेरे हैं कि नहीं










Thursday 8 September 2011

लघुकथाएं

                                                                      "आज तक"          



           पढाते पढाते अध्यापिका को लगा, उसके अंग - प्रत्यंग पर कुछ रेंग रहा है. उसने रुमाल से अपने चेहरे, होंठ, गर्दन को पोंछा किन्तु रेंगने का अहसास बना रहा. मन का वहम समझकर वह पुनः पढाने की कोशिश करने लगी, परन्तु पढा न सकी.
            पढाने का क्रम बाधित हो चुका था. उसकी दृष्टि छात्रों पर पड़ी. उसने पाया कि उनमें से कुछ नज़रों में उसकी देह के अंग - प्रत्यंग दिख रहे हैं. अब वह समझ सकी कि क्या रेंग रहा था. साड़ी के पल्लू से बची खुची देह  को उसने और ढँक लिया किन्तु देह को ढंके रखने के बावजूद वह रेंगना आज तक जारी है.


                                                                              "वंशज"



           चिड़िया ने कबूतरी से एक पड़ोसन के नाते कहा - बहन! घोंसला सुरक्षित, मजबूत और आरामदेह बनाया करो. यूँही तिनको का झाड इकट्ठे करने का क्या मतलब?  दूसरे जगह नहीं मिलती तो नीचे ही घोंसला बना लेते हो ? देखभाल और परवरिश अच्छी होनी चाहिए.
            कबूतरी ने जवाब दिया - मेरा पति इस आडम्बर से दूर है. संसार मिथ्या है, रिश्ते मिथ्या है. जो बन पड़े कर्म करो और शांति से जीवन जीओ. वह तो सदैव अपने ज्ञान और ध्यान में डूबा रहता है.
           चिड़िया धैर्य रखते हुए बोली - यह सब तो ठीक है पर बच्चों के प्रति भी हमारा कुछ दायित्व बनता है. उनके भविष्य से खिलवाड तो नहीं किया जा सकता ना ?
           कबूतरी को जरा सी चिड़िया की दी हुई सीख अच्छी नहीं लगी. नाक फुलाकर अहंकार से बोली - तुम साधारण लोग ज्ञान व्यान क्या जानो ? संसार में फंसी हो मोह में जकड़ी हो. तुमने अपने बच्चों को ऐसा क्या दे दिया ?
           चिड़िया को क्रोध तो बहुत आया किन्तु उसके झूठे अहम और मूर्खता को जानकार चुप रह गई. फिर इतराते हुए गर्दन फुलाए उसमें सिर धंसाए तथाकथित ध्यान मुद्रा में बैठे कबूतर के पास चली गई. उसे देखते ही कबूतर उसके चक्कर काटने लगा. उसका ज्ञान और ध्यान तिरोहित हो गया था.
            चिड़िया मन में सोच रही थी - न समय, न संयम बातें बड़ी बड़ी. हर बार बच्चे भक्षक जानवरों का ग्रास बनते हैं. बच जाते हैं तब वंश परंपरा में मिली मूर्खता और झूठे दंभ को निभाते हैं.




Thursday 11 August 2011

कुछ कविताएँ

विदा लेने का समय 


तुम अकेले होते ही
अपने संसार में
चले जाते हो

यही प्रतीक्षा है जो
करती हूँ
एक नटी की तरह
तुम्हारा एकाकी होना
बेहतर समय है संतुलन का

कविता में उतरते हो जब
बात करना होता है सहज

रुमानियत को संभाले
अहसासों को पीते हुए
कदम दर कदम
देखती हूँ एक नया संसार

उचित समय होता है
जब तुम रच चुके होते हो
एक कविता
मैं पार कर लेती हूँ रास्ता

विदा लेने का


एक खिडकी खुली रहती है 



मेरी
एक खिडकी खुली रहती है सदा
झांकते हुए कितने ही चेहरे
घर को टटोलते हैं

दरवाजे पर चाहे
लगा गया है सांकल समय
जानबूझकर

अब समंदर पर ताला तो
लग नहीं सकता
उसे भी हक है जानने का कि
खारे और मीठे का अंतर
जाना गया कि नहीं
पहचाना गया कि नहीं

कौन है जो खोलेगा यह द्वार

मैं हूँ कि फेंकती रही हूँ सदा
चाहा अनचाहा इस खिडकी से


आया है संदेसा फिर से 



हर रात में
चमेली महकी थी
सपने खिले थे
हर दिन
रात रानी से झरे थे

कुछ कलियाँ
रह गईं थी बाकी
बहती बयार के हाथ में
एक कहानी सुनी थी
भंवरों कि ज़ुबानी

तितलियों के साथ
संदेसा आया है फिर से


बंजारा है प्यार - 1


किन्ही
अनचीन्ही दिशाओं में
कुछ खोजते रहना
हर कदम
ना आदि ना अंत

रह गए है पगडंडियों पर
क़दमों के आकार
धरती पर सुगंध
आसमान में नीलापन

गाडी में ले जाता है
फूलों के रंग
आँखों के सपने
मन की कुलांचे
हवा की थपकियाँ

और हमारी नींद

अपनी धुन में झूमता गाता
बंजारा है प्यार
चला जा रहा जिसका
ना आदि ना अंत


 बंजारा है प्यार -2




वह बांसुरी बजाता
हर गली हर गाँव से
गुजरता रहा

निकल रही कुछ तान ऐसी कि
समाने लगी अंतस में

घरों से निकल आए
उछालते कूदते
हँसते गाते कितने ही मन

चल दिए पीछे पीछे
फिर दुनिया उनके
पीछे पीछे

ले चला ना जाने
किस दिशा किस देश में

खोजने निकले थे जब
देखा था हर ओर
जहाँ जहाँ
खतरे के निशाँ बने थे






























Tuesday 2 August 2011

जब आई होगी ......

तपते शरीर की बचैनी
टूटती देह और मन
न था पास में
कोई स्पर्श जल
ढल रहा था सूरज
कि तुम्हारा जीवन

नरम गरम बिस्तर नहीं
पत्थर की चादर
मुड़े हुए हाथ का तकिया
अंग अंग में धसने लगा था
देह में पीड़ा
क्या लहू बन उतर गई थी
अकेलेपन के
अंधकार पीते हुए
रिश्तों की नरमाहट बिना

कैसे तैयार हुए
लम्बी यात्रा पर
जाने के लिए

क्या क्या देखते रहे तुम
उस काल की किताब में
मेरा नाम भी
पढ़ा था कि नहीं

देह केंचुल होकर
छूटना चाहती थी
तुम्हारी

मन मेरा
काँटों से पहले ही
छिलने लगा था

उजले धुले वस्त्रों पर
जिंदगी की कालिख लिए
तुम किस दिन से
इस प्रेयसी का इंतज़ार
करने लगे थे

जब अंधेरों के
तिलचट्टे खाने लगे थे
घाव रिसने लगे थे
चमगादड़
जब तब आकर
कहोंचते थे उन्हें

तब
मन की टिटहरी ने
टीहू टीहू की टेर में
अंतिम पावस का
ऐलान कर दिया था

तुम खुश थे या नहीं
ईश्वर ही साक्षी है

कैद सदा दुःख देती है
पर कोई तो था जो
ले जाना चाहता था
मुक्ति की ओर

किसी दिन की कोई प्रार्थना
उतर गई होगी
अंधी होकर उस गुफा में

बाहर के शोर ने
जब तुम्हारा अनकहा
सुनने से मना कर दिया था

निर्मम अनुभूतियों ने
असलियत समझा दी थी
या
उम्मीदों से दमन झटककर
उसी से लौ लगा बैठे थे

छोटी सी उमर  में
कितने जन्मों की लड़ाई
लड़ रहे थे तब

क्या चल रहा था
ज़ेहन में तुम्हारे

उमड़ते घुमड़ते सागर में
क्षमा की लहरें थीं
या फेन थे नफरत के

महसूस हुआ
रिश्तों का खोखलापन
'मैं' का घिनोंनापन
या अपना अबोलापन

क्या पाया था
जीवन का दिया
निर्वासन या
इस प्रेयसी का
आलिंगन

हमारे दर्शन और तर्क
व्याख्याएं और शब्द
झूठे पड गए होंगे शायद
तुम्हारो दर्शन के सामने

सच का चेहरा
देख लिया था या
जान गए थे तुम कि
खोज यहाँ से
शुरू होती है या समाप्त

( अपने जवान बेटे की असमय मृत्यु पर एक माँ के मन की श्रधांजलि. जब वह अपनों से दूर था. पर अपना कौन यही सवाल है जिसे माँ पूछना चाहती है बेटे से )


Monday 1 August 2011

17.

वह आज
देख रही
तिरते बादल

कितनी ही देर
उड़ती रही
पंख पसारे

अपने समंदर में

18.

तुमने
दावा किया

वह आंख
तुम ही थे

प्यासा क्यूँ
मर रहा मन

आजतक

19.

मछली
जल की रानी है

पर समंदर
कब होगा राजा

क्यूँ रूठकर
फिसल गई बांहों से

तेरा प्यार है
जीवन उसका

तेरी म्रत्यु
विरह उसका

20.

बिन जल
मछली ही नहीं
तडपी थी

सारस भी
उड़ न पाए जब

छटपटाए थे हम

21.

वह
देख लेती है
जल के उस पार

चीर सकती है
दुःख
उसका

पर समंदर
समझ न पाया

मन उसका

22.

वह न सोती है
न रोती है

रो लेती थी मै
सो भी लेती थी

उसके आंसू
उसकी नींद

कब आत्मसात
कर सकी मैं

23.

मछली का
विश्वास बड़ा था
उसके पास
समंदर जो था

मेरे विशवास
उसकी तरह
कब हो सकेंगे
गहरे

24.

हर दिन
तैरना
लहराना
गहराना

एक एक पल
समंदर को
कैसे सौंप दिया

तुमने

25.

तू जानने लगी है
मुझे या
स्वयं को

अब कोई आहट
सरसराहट
डराती नहीं
तुझे

पर मैं
अब तक
भयभीत होती रही
किससे

26.

नकली में भी
असली गंध
कैसे पा सकी
वह

कांच की
दीवारें भी
हो गईं सुकून
उसका

हम
'घर' के भीतर
हो न सके
एक मछली



Thursday 28 July 2011

10.

एक दिन
स्वाति बूंद गिरी
उसकी आंख में

जान गई
समंदर को

रोजाना आती
जल की सतह पर

खोजती
समंदर में समाया
एक और समंदर

11.

तू भर ले
अपनी आंख में

कुछ बीज

प्रलय के
इस उत्पात में
मैंने भी

कुछ बचाया है

12.

नदी रुक
जरा थम

सुन
समंदर में नहीं
समां मछली की
आंख में

वह समंदर
खोजती जिसे

वहीँ मिलेगा
तुझे

13.

तू आंख से नहीं
बोल मुख से

तेरा अबोलापन
जानने नहीं देता

समंदर के अर्थ
मुझे

14.

नदी सूखती रही

समंदर लगाता रहा
ठहाके

उसकी आंख
भर रही नदी

फिर से

15.

जहाँ दुनिया है

है वहाँ
मछली की आंख

दुनिया और मेरी
नाव के बीच

उसकी झिल्ली है

16.

समंदर में रहकर
उसने
बचा लिया

वह

जो बचा ना सकी
कभी स्त्रियां

काश
स्त्री मछली
हो गई होती



Wednesday 27 July 2011

'मछली की आंख : एक दुनिया' से कुछ कविताएँ

1.

समंदर जहाँ था
कहाँ था वहाँ

था
मछली की आंख में

उसकी आंख थी
जहाँ

था
मन मेरा वहाँ


2.

जब
पी रहे थे
हम
घूँट जीवन के

तब वह
निगल रही थी
छोटी छोटी
मछलियां

3.

मछली की आंख
नहीं थी
उस तैल में

था
द्रौपदी का मन

अर्जुन की आंख
खुल रही थी

द्रौपदी की पलक में


4.

समंदर
जल पीता रहा
पोर पोर उसका

मछली में
जल होता गया
अनंत

5.

वह निगल गई
एक दिन
स्त्री की आंख

समंदर से
भयभीत
रहने लगी

आज तक

6.

वह
कहाँ से लाई
जल

तुमने जब भी
जानना चाहा

प्यास रह गई
हर पल

7.

तेरी आंख

आज भी है
भरी हुई
जीवन से

कट रही थी
जिस पल

क्या कर रही थी
साक्षात्कार
जीवन से

8.

कांच की
दीवार पार

उसकी आंख से

हर दिन
टपकती दो बूँद

तुमसे दूर
होने के बाद

यूँही तो
हँसता रहा

मन

9.

तू सोई नहीं
अपलक निहारती
पथ

वह तो गया

अब केवल
जल ! जल ! जल !