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वत्सला पाण्डेय
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Sunday, 24 July 2011
वे आम्रबौर
वसंत में
कितनी ही
कोंपलें फूटी थी
कूक रही थी
अंतस की
कोयल
चटक उठी थी
कलियाँ देह की
वे आम्रबौर
आज भी
महक रहे हैं
मुझमें
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