Sunday 24 July 2011

वे आम्रबौर

वसंत में
कितनी ही
कोंपलें फूटी थी

कूक रही थी
अंतस की
कोयल

चटक उठी थी
कलियाँ देह की

वे आम्रबौर
आज भी
महक रहे हैं
मुझमें

2 comments:

  1. कूक रही थी
    अंतस की
    कोयल
    बेहद खूबसूरत रचना..... शुभकामनाएं.

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  2. आदरणीया वत्सला जी
    सादर सस्नेहाभिवादन !
    सुमधुर स्मृतियां !!

    …वे आम्रबौर
    आज भी
    महक रहे हैं
    मुझमें

    बहुत सुंदर पंक्तियां ! बहुत सुंदर रचना !!

    ब्लॉगजगत में आपको पा'कर प्रसन्नता है । अब आपकी सुंदर रचनाएं पढ़ने के लिए वर्षों किसी अवसर विशेष की प्रतीक्षा तो नहीं करनी पड़ेगी :)



    आपकी पहली पोस्ट है … हार्दिक स्वागत और शुभकामनाएं !

    -राजेन्द्र स्वर्णकार

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